बेबसी का आलम होता तो उस पर टाल भी देते..
भरी महफ़िल में तेरा नाम किस सवाल पर लेते..

इन शामों को बताओ जो शरमा जा रहीं हैं बिन कहे..
के इन पर्दों के पीछे हम ही हैं अकेले दीवान पर लेटे…

यूँ जो तुम इठला रही हो ज़ुल्फ़ों से पानी झटकने को..
मर ना जाएँ कई आशिक़ जो छतों की दीवार पर सटे..

कभी फ़ुरसत से भी गुज़रा करो मेरी तंग गलियों से..
खिड़कियाँ और भी खुलती हैं जो तेरे दीदार पर मिटे..

क़ातिल ऐसे भी हैं जो चलाते हैं ख़ंजर बेतरतीब..
इतनी भी ग़ैरत नहीं के बस एक-दो वार कर हटे..

दस्तूर ज़माने का के आज कोई सुनता नहीं मेरी..
नज़्में सुन कल वाह लुटाएँगे मेरी मज़ार पर बैठे।