तेरे अधरों पर वर्षा की जो बूँद गिरी..
मेरे निष्कम्प हृदय से एक टीस उठी..
व्याकुल जैसे जीवित था मैं जन्मों से..
तुम अंतिम स्वाँस समान मेरे तन में मिली..
मैं धीर धरे बैठा ही रहा शैय्या पर..
तुम मुग्ध पवन सी रोम-रोम में जा घुली..
वो बुद्ध थे जो वृक्षों के नीचे ब्रह्म हुए..
तेरे केशों के पहलू में लगता मेरी मुक्ति..
निज साँझ सवेरों पर है अब तेरे पहरे..
चितेरों ने आकाश रचा है जहाँ तक हो दृष्टि..
श्यामल तन पर जब चन्द्र किरण सी बहती हो..
भय है कहीं प्रज्वलित ना कर दूँ सारी सृष्टि..
मैं शिव के तांडव सा उग्र परंतु खल कामी..
दूषित, विचलित,मलँग कोई व्यभिचारि..
तुम गोकुल में कृष्ण की बंसी से बहती..
त्रिलोकों को मंत्रमुग्ध करती स्वर लहरी..
तेरे श्रृंगार में डूबा हूँ तो भवसागर तर लूँगा..
पी प्रेम मदिरा तेरे नैनों से दिन-रात्रि..
“मृत्यु” तेरे आलिंगन से सब कष्ट दूर हुए..
जीवन तुझे होना चाहिए क्षमा प्रार्थी!
kya baat…..behtarin lekhan.
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Thank you Sir 🙂
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