अशांत बहुत है मन विचारों का द्वन्द है..
दावानल है यह या फिर कोई प्रपंच है..
होंठ भींच कर रोके हैं शब्दों के शर..
घुमड़ रहा है हृदय में यह रोष प्रचंड है ।
साधारण हूँ, अपनी सीध मैं आता-जाता हूँ..
यह मूक बधिर जीवन भी तो स्याह कलंक है..
मैं अपनी खिड़कियाँ बंद करके भी बैठूँ तो..
क्या वो पत्थर ना मारेगा जो अपराधी है उद्दंड है ।
अब आवाज़ों की नहीं आहुतियों की है बारी..
बग़ल रखो बंसी की अभी ताल पर मृदंग है..
पर यह तांडव शिव का नहीं अर्धनारिश्वर का हो..
जननी को प्रणाम करो गर पुरुषार्थ पर घमंड है ।
तिल-तिल मरना कब तक जारी रखोगे..
शोलों को राख होने में अभी विलंभ है..
अग्नि देकर अपने-अपने हिस्से की..
कर दो आह्वाहन कि यह ज्योति अखंड है ।
kya baat ….kya bat ….behtarin rachna…..umda lekhan.
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Bahut bahut dhanyawaad 🙂
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