ना
शिकायतें
ख़त्म
होंगी..ना
उम्मीदें
ही
ख़त्म
होंगी..
तेरे असरार-ए-मोहब्बत
में
बस
नींदें
ही
ख़त्म
होंगी
सितम के
सड़ते
ढेर
से
कुछ
आवाज़ों
की
सुगबुगाहट..
इस सर्द
रात
के
सन्नाटे
में
ये
चीख़ें
भी
ख़त्म
होंगी
दैर-ओ-हरम
से
आते
तो
कुछ
मैखानों
से
निकलते..
झरोखों से
ताके
नज़रें
की
हम
कनीज़ें
ही
ख़त्म
होंगी
इस बार
ये
इंक़लाब
क्या
लिखेगा
मुस्तकबिल
भी
?
या फिर
बस
बुत
ही
टूटेंगे..
यूँ
तकरीरें
ही
ख़त्म
होंगी
आँधियों की
नीयत
लाओ
के
यूँ
फूँकों
से
ऐ
शायर
ये दीवार
क्या
गिरेगी..
क्या
लकीरें
ही
ख़त्म
होंगी
बहुत अच्छा लिखा है सर 👌
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