एक बात पूछूँ सच बताओगे क्या ?
नाराज़ हो जाऊँ तो मनाओगे क्या ?
एक बिस्तर ही है बैठने को घर में
कभी शाम ढले भी आओगे क्या ?
कहना तो बहुत कुछ है मुझे तुमसे
लबों को लबों से सुन पाओगे क्या ?
लिपटी हुई हैं जो तेरे जाने के बाद
उन उलझनों को सुलझाओगे क्या ?
सबको रंज के खुदा बदल लिया मैंने
महफ़िल में नक़ाब उठाओगे क्या ?
शराब पीने तो सब आते हैं साक़ी
दो बूँद पानी की पिलाओगे क्या ?
सोता हूँ तेरे पहलू में ना उठने के लिए
वक़्त-ऐ-रूखसत पर जगाओगे क्या?
जला नहीं है ठीक से अभी बदन शायर
बुझते शोलों को सुलगाओगे क्या ?
कमाल की है आपकी लेखनी भी!
👏👏
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Thank you 🙂
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lovely post!
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Thank you so much 🙂
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