ढलती शाम सी उम्मीद हो जाए तो अच्छा है
अगर शब ही रहे, सहर ना आए तो अच्छा है
ऐ ख़ुदा जो भी आए, ख़ंजर पीठ पर चलाए
आकर सामने सूरत ना दिखाए तो अच्छा है
मेरे सख़्त चेहरे पर जज़्बात टिका नहीं करते
वो आकर बरसात में ही रुलाए तो अच्छा है
सारे शहर को तो मैं नाराज़ कर नहीं सकता
मेरे ख़्याल वीरानों में चिल्लाए तो अच्छा है
बड़ी उम्मीद से मेरी राह पर पत्थर बिछाए हैं
ये लड़खड़ाना लोगों को हँसाए तो अच्छा है
साहिल पर शराब हो और कुछ बातचीत हो
लहरें अपनी तन्हाई ऐसे छुपाए तो अच्छा है
यूँ ही ढूँढता हुआ कभी कोई आएगा ‘शायर’
तब मेरा नाम ना कोई बताए तो अच्छा है
बहुत खूब
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