क्या समस्त हूँ मैं? या विभक्त,
या भावों से विरक्त।
कदाचित मरुधरा के धोरों सा,
कहीं में विलीन, कहीं प्रकट।
एक क्षण को आंदोलित हूँ,
तत्क्षण, शून्य व अशक्त।
कभी हिम सा कठोर,
फिर चंचल जल भी, त्वरित।
द्वन्द एक मैं जीत भी जाऊँ,
किंतु क्या हो जब द्वन्द सतत?
वो अपने ही थे ,जो कौरव थे,
अब होंगे कहाँ कृष्ण प्रकट।
निज कर्मों का जब मन्थन किया,
हुआ उत्सर्जित हलाहल अनन्त।
नर्क की अग्नि भी शीतल होगी,
दावानल है यह जीवन, ज्वलंत।