एक धनुष है एक बाण,
बाँध प्रत्यंचा लगा गाँठ,
हुंकार भर, जय जय श्रीराम,
हर प्रत्यक्ष को दे प्रमाण।
 
जटा खोल विकराल बन,
काल नहीं महाकाल बन,
तू क्षुब्ध है किन्तु रूद्र भी,
बस वामन, अब विशाल बन।
 
सहिष्णुता पर भी द्वेष यह,
कब तक दबेगा रोष यह,
अब बन प्रखर प्रह्लाद सा,
है पाँचजन्य का उद्घोष यह।
 
बन प्रेमरोगी, कर महारास,
तू कर्मयोगी, वद गीतासार,
कहे सारथी कुरुक्षेत्र का,
अर्जुन! अधर्म का हो संहार।
 
क्यूँ नहीं निज का गौरव हो,
जब हर दूजा यहाँ कौरव हो,
तजो भारत यह आत्मग्लानि,
बरसो की तुम रण-भैरव हो।