एक इंक़लाब ज़िंदा है तेरी आँखों में
मेरी सरफ़रोशी का इम्तिहान लेता है
ये बहुत खूब मेहरबानी है वक़्त की
के आने पर वो सबकी जान लेता है
उम्र बेच के दौलत कमा रहा हूँ यहाँ
इतनी दौलत क्या शमशान लेता है?
आज इस कदर है बिसात-ऐ-बशर
ख़ुदा को जमीं दे, आसमान लेता है
एक तेरे दर्द से यहाँ ना कोई वाक़िफ़
फिर भी तू सबके मर्ज़ तमाम लेता है
मैं किसी के ख़िलाफ़ नहीं हूँ शहर
तू शायद इसी का इंतक़ाम लेता है