कोई भी मुकम्मल नहीं है यहाँ
सबके वजूद में सुराख़ बहुत है

बस अमावस को निकलता है
कि मेरे चाँद में दाग बहुत है

एक उनसे नहीं है कोई आशना
बाक़ी सब पर धाक बहुत है

कभी मुस्तकबिल था कल का
आज मेरे बदन पे ख़ाक बहुत है

कई हसरत सुलगती देखी है
इस नफ़रत में आग बहुत है

खिड़कियाँ बंद रखता हूँ शहर
तेरी हवाओं में राख बहुत है